आखिरकार खाली हुई रेलवे की जमीन
रेलवे की कार्यवाही मे पिस गए शहर के दर्जनो खरीददार, अधर मे खून-पसीने की कमाई
बांधवभूमि न्यूज
मध्यप्रदेश, उमरिया
जिला मुख्यालय के रेलवे स्टेशन से लगी करीब पौने पांच एकड़ भूमि को खाली कराने की कार्यवाही रविवार को भारी गहमागहमी के बीच शुरू हुई। इस मौके पर एडीईएन प्रशांत बारीक, एसडीओपी नागेन्द्र सिंह के अलावा बड़ी संख्या मे पुलिस, प्रशासन और रेलवे के अधिकारी व कर्मचारी जेसीबी के सांथ मौजूद थे। जानकारी के मुताबिक शाम तक करीब 7 मकानो को जमींदोज कर दिया गया। इस दौरान अधिकारियों को मामूली विरोध का भी सामना करना पड़ा, हलांकि इससे उनके कार्य मे कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हुआ। गौरतलब है कि उमरिया रेलवे स्टेशन को केन्द्र सरकार की अमृत भारत योजना मे शामिल किया गया है। इसके तहत परिसर मे कई तरह के निर्माण कार्य चालू हैं। अधिकारियों ने बताया कि स्टेशन और आसपास का पूरा क्षेत्र रेलवे की संपत्ति है, यहां कई नई संरचनायें बनाई जानी है। लिहाजा क्षेत्र मे अनाधिकृत तरीके से बनाये गये सभी भवनो को तोड़ा जा रहा है। वहीं दूसरी ओर पीडि़त परिवारों के अपने तर्क है। उनका कहना है कि वे एक बड़े फर्जीवाड़े का शिकार हुए हैं।
मिट्टी मे मिली खून-पसीने की कमाई
हमेशा से कहा जाता रहा है कि जमीन-जायदाद के मामले विशेष सतर्कता बरती जानी चाहिये। इसमे जरा सी लापरवाही और अति विश्वास खरीददार को मंहगा पड़ सकता है। रेलवे स्टेशन के पास स्थित इस भूमि मे भी यही हुआ है। दरअसल जिन मकान मालिकों तथा रिक्त भूमि के स्वामियों के खिलाफ कार्यवाही हो रही है, वे कोई अतिक्रमण कारी नहीं हैं। ये जमीने उन्होने अपने खून-पसीने की कमाई से खरीदी थी। जो अब मिट्टी मे मिलने की कगार पर पहुंच गई है।
रजिस्ट्री से खरीदी थी जमीन
बताया गया है कि नगर के छटन कैम्प की खसरा नंबर 1334 की 4.74 एकड़ आराजी राजेश कुमार अग्रवाल निवासी उमरिया द्वारा वर्ष 1989 से 2005 के बीच टुकड़ों मे करीब तीन दर्जन से अधिक लोगों को रजिस्ट्री के जरिये बेंची गई थी। तब इन खरीददारों ने यह सोचा कि चंद कदमो पर रेलवे स्टेशन और हाईवे से लगी जमीन पाकर वे धन्य हो गये हैं, परंतु शायद उन्हे यह पता नहीं था कि उन्होने जमीन नहीं बल्कि एक मुसीबत खरीद ली है। साल 1989 से रेलवे, राजेश अग्रवाल तथा अन्य क्रेताओं के बीच कानूनी लड़ाई शुरू हुई। जो निचली अदालतों से होते हुए प्रथम व्यवहार न्यायाधीश उमरिया पहुंच गई। यहां पर भी फैंसला रेलवे के पक्ष मे ही आया। जिसकी अपील भूमि विक्रेता तथा क्रेताओं ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश के समक्ष की जिसे 11 दिसंबर 2023 को खारिज कर दिया गया। इसी बीच करीब 7 लोगों ने उक्त जमीन पर पक्के मकान बनवा लिये जबकि शेष भूमि खाली पड़ी रही। न्यायालय के फैंसले के बाद रेलवे ने जमीन को मुक्त कराने की कार्यवाही शुरू की और 21 जनवरी को यह कार्य भी पूरा कर लिया गया।
इस तरह हुआ था फर्जीवाड़ा
जानकारों का दावा है कि यह जमीन कूटरचित दस्तावेजों और हेराफेरी के जरिये हथियाई गई थी, जो बाद मे भोले-भाले नागरिकों को लाखों रूपये मे बेंची गई। बताया गया है कि 1935 के आसपास उक्त भूमि रीवा राज दरबार ने बंगाल-नागपुर रेलवे (बीएनआर)को स्टेशन आदि बनाने के लिये दी थी। कालांतर मे राजस्व रिकार्ड मे यह तालाब के नाम दर्ज हो गई। कुछ समय बाद सुखराम वल्द ज्वाला प्रसाद कायस्थ ने फर्जी तरीके से इसे अपने नाम चढ़वा लिया। 12 मई 1986 को राजेश अग्रवाल ने सुखराम से 10 हजार रूपये यह जमीन खरीद ली और नामांतरण कराने के पश्चात इसे करीब 35 लोगों को बेंच दिया। जब मामला तत्कालीन अनुविभागीय अधिकारी शिवपाल सिंह के सामने पहुंचा तो उन्होने सुखराम कायस्थ की इण्ट्री को गलत मानते हुए इसे पुन: मप्र शासन दर्ज करने का आदेश जारी कर दिया।