बढती आबादी, सिकुडता कारोबार

बढती आबादी, सिकुडता कारोबार

बंद होते उद्योगों और बेरोजगारी ने लगाया भविष्य पर प्रश्नचिन्ह, आशंकित जिले का युवा

बांधवभूमि न्यूज

मध्यप्रदेश
उमरिया

किसी जमाने मे विंध्य के सबसे सुंदर और तेजी से विकास करने वाले इलाकों मे शुमार उमरिया अब अपनी चमक और पहचान खोता जा रहा है। धन-धान्य, जल, जंगल, जमीन, दुर्लभ जीव, खनिज तथा विभिन्न प्रकार की बेशकीमती प्राकृतिक संपदा से भरा-पूरा यह क्षेत्र रियासतकाल से ही शासन की आय मे अपना अहम योगदान देता आया है। इसके बावजूद उसे वो दर्जा हांसिल नहीं हुआ, जिसका कि वह हकदार था। आज से करीब 24 साल पहले 6 जुलाई 1998 के दिन उमरिया को जिले का दर्जा मिला, तब लगा था कि अब लोगों के दिन बहुरने वाले हैं। कुछ दिनो तक ऐसा महसूस भी हुआ, पर बाद के सालों मे धीरे-धीरे वह भरम भी टूटने लगा। उपेक्षा तथा विजन के आभाव मे शुरू हुआ जिले की अवनति का दौर आज भी जारी है। यहां की सबसे बडी समस्या बेरोजगारी है, जिसे पर्यटन तथा औद्योगीकरण के जरिये आसानी से व्यवस्थित किया जा सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। आय के सीमित साधनो की वजह से जनता के पास क्रय शक्ति नहीं रही, जिसका असर कारोबार पर साफ दिखाई देता है। रोजगार के अलावा जिला आज भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है, जिसके चलते युवाओं को पढाई से लेकर अपने जीवन-यापन के लिये हजारों मील दूर जाने को मजबूर होना पड रहा है।

140 साल पुरानी कालरी
गौरतलब है कि देश की दूसरी कोयला खदान उमरिया मे वर्ष 1884 मे खोली गई थी। जिसे शॉवालेस और रीवा कोल फील्ड कम्पनी द्वारा संचालित किया गया। मतलब करीब 140 साल से कालरियां ही इस क्षेत्र के विकास का प्रमुख आधार रहीं हैं। पूर्ववर्ती सरकारें कोयला उद्योग को लाभ से कहीं ज्यादा जनता के जीवन-यापन का जरिया मानती थीं, क्योंकि इससे कामगारों को ही नहीं पूरे क्षेत्र के लोगों और व्यापारियों की रोजी-रोटी चलती थी। धीरे-धीरे नुमाईन्दों की सोच के सांथ शासन की नीतियां भी बदलीं, जिसका नतीजा निजीकरण के रूप मे सामने आया। हलांकि इसके तीव्र विरोध को देखते हुए चालू खदाने न बेंच कर नये कोल ब्लाक धन्नासेठों को सौंपने की रणनीति अपनाई गई। इतना ही नहीं एसईसीएल की कोयला खदानो मे माईङ्क्षनग और डिस्पेच के अलावा कई प्रकार के छोटे-मोटे काम भी ठेके पर दिये जा रहे हैं।

8000 से 2600 रह गये कामगार
हर जगह की तरह जिले का व्यापार भी काफी हद तक शासकीय विभागों मे कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों पर आश्रित है, हलांकि इसमे बडा हिस्सा कोयला खदानो मे कार्यरत अमले का है। कभी दस तारीख को कालरियों का भुगतान होते ही जिले के बाजार गुलजार हो जाया करते थे। इसके अलावा रेलवे, विद्युत मण्डल तथा अन्य शासकीय विभागों के मुलाजिमो का वेतन भी स्थानीय दुकानदारों तथा नागरिकों को मजबूती देता था। बीते सालों मे भॢतयां न होने, निजीकरण तथा आऊट सोॢसग के चलते सभी सरकारी महकमो मे कर्मचारियों की तादाद नगण्य रह गई है। बताया जाता है कि वर्ष 2000 तक जिला मुख्यालय मे संचालित चपहा और पिपरिया कालरी मे कामगारों की तादाद 2200 के आसपास थी, जो अब महज 700 है। इसी तरह समूचे एसईसीएल जोहिला क्षेत्र मे करीब 8000 कर्मचारी थे, जिनमे से मात्र 2600 ही शेष रह गये हैं।

कब तक बंटेगी खैरात
जानकारों का मानना है कि जिले की अर्थव्यवस्था अब कृषि के अलावा सरकारी खैरात पर टिक गई है। बढती लागत और प्राकृतिक आपदाओं की मार ने किसानो की कमर तो पहले से ही तोड दी है, ऊपर से हर स्तर पर शोषण और उपज के सही दाम न मिलने से वे बुरी तरह मायूस हैं। नई पीढी तो खेती से दूर ही रहना चाहती है। सवाल उठता है कि कोई भी सरकार कर्ज लेकर कृषि सम्मान और लाडली बहना जैसी योजनायें कब तक जारी रख सकती है। इसलिये जरूरी है कि नागरिकों को रोजगार और नौकरी देकर इतना सक्षम बना दिया जाय कि वह अपने माता, पिता, बहन, बेटी और पत्नी के सांथ बेहतर तरीके और स्वाभिमान से जीवन-यापन कर सके।

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