कमजोर न हो लोकतंत्र का आधार

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष संपदाकीय-राजेश शर्मा 

आजादी के बाद लोकशाही के रूप मे भारत को एक ऐसी व्यवस्था मिली, जिसकी डोर जनता के हांथ मे थी। जनता के नुमाईन्दे परिस्थितियों के अनुसार आवाम और देश की भलाई के लिये जो भी निर्णय लेना चाहें, ले सकते हैं। लोकतंत्र के तीन स्तंभों मे विधायिका के अलावा कार्यपालिका और न्यायपालिका को भी उतना ही महत्व हांसिल है, परंतु इनमे विधायिका सुप्रीम है। क्योंकि उसी के पास संविधान और काननू को बदलने जैसी असीम शक्तियां हैं। इसके पीछे सोच सिर्फ यही थी कि देश मे जनता का राज कायम रहे और उसकी इच्छाओं को सवोच्च प्राथमिकता मिले।
कालांतर मे चुनाव आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, वित्त आयोग, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक जैसी कई संस्थायें गठित की गई, उन्हे सरकारी नियंत्रण से मुक्त और प्रभावरहित स्वरूप दिया गया। जिन्होने लोकतंत्र को और भी मजबूती दी। आने वाली सभी सरकारों ने हमेशा इनकी मर्यादा, सीमा और सम्मान का पूरा ख्याल रखा। कहते हैं कि संघर्ष से मिली उपलब्धियों का मर्म इसे अनुभव करने वाला ही समझ सकता है। आज देश मे वही सब कुछ हो रहा है। वर्तमान पीढ़ी ने कभी दासता की पीड़ा को महसूस ही नहीं किया, तो वह इसका महत्व भी कैसे जानेगी।
जिन महापुरूषों ने राजशाही को नकार कर लोकशाही को स्वीकार किया, उन्हे स्वप्न मे भी इस बात का भान नहीं रहा होगा कि दुनिया की सर्वोत्तम पद्धत्ति की खूबियों पर बहुमत की उद्दण्डता इतनी भारी पड़ेगी कि इसका आधार ही चरमराने लग जायेगा। जो संवैधानिक संस्थायें लोकतंत्र की जड़ों को सींचती आई हैं, उनकी आवाज सत्ता की दुदुंभियों मे खो कर रह जायेगी। जो पद कभी नैतिकता के प्रतीक थे, वे भी सत्ता के आगे कालीन बनने को तैयार हो जायेंगे। आज स्वार्थ और सत्ता लोलुपता जनादेश का अपहरण करने पर उतारू है। असहमति की परंपरा जो कभी व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती थी, वह सत्ताधीशों के आखों की किरकिरी बन कर रह गई है।
हमे याद रखना होगा कि जो परंपरायें वर्तमान बनाता है, वे भविष्य के लिये अनुसर्णीय होती हैं। जनमत का सम्मान और संवैधानिक संस्थायें ही इस लोकतंत्र का आधार हैं। यदि ये मजबूत हैं, तभी जनतंत्र और देश भी सुरक्षित है। भारत के स्वाधीनता की वर्षगांठ पर आईये हम सब मिल कर लोकतंत्र के आधार को अक्षुण्य रखने की शपथ लें।

स्वतंत्रता दिवस की बधाई, जय हिंद…

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