संज्ञेय अपराध में मैजिस्ट्रेट को अधिकार हैं कि वहां पुलिस को छानबीन का आदेश दे

सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी,मध्यप्रदेश के ग्वालियर के केस में सुनवाई के दौरान कहा 

नई दिल्ली। ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट की ड्यूटी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट की ड्यूटी है कि वह पुलिस छानबीन का आदेश पारित करे अगर उन्हें पहली नजर में दिखता है कि संज्ञेय अपराध हैं, और तथ्यों से लगता है कि पुलिस की छानबीन की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने कहा है कि सीआरपीसी की धारा-156 (3) के तहत मैजिस्ट्रेट ड्यूटी बाउंड है कि वह संज्ञेय अपराध के मामले में छानबीन का आदेश दे। सीआरपीसी में इंग्लिश का मैं शब्द का इस्तेमाल हुआ है, यानी मैजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया गया है कि वह छानबीन का आदेश दे सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस अधिकार का इस्तेमाल न्यायसंगत तरीके से होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह सही है कि सीआरपीसी की धारा-156 (3) शब्द मै का इस्तेमाल हुआ है, जो मैजिस्ट्रेट को अधिकार देता है कि वह पुलिस को छानबीन का आदेश देगा। मैजिस्ट्रेट के सामने जब शिकायत होती है, तब वहां पुलिस को छानबीन का आदेश देता है। लेकिन मैजिस्ट्रेट को जो अधिकार मिले हैं उसका इस्तेमाल वह मनमाना नहीं कर सकता है। ऑर्डर न्यायसंगत होना चाहिए और ज्यूडिशियल तौर पर तार्किक होना चाहिए। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में संज्ञेय अपराध की परिभाषा इसतरह के अपराध के रूप में की गई है, जिसमें गिरफ्तारी के लिए पुलिस को किसी वारंट की जरूरत नहीं होती। संज्ञेय अपराध सामान्यतः गंभीर होते हैं जिनमें पुलिस को तत्काल कार्रवाई करनी होती है। सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश के एक सेक्सुअल ऑफेंस मामले में टिप्पणी कर कहा कि इसतरह के केस जहां मैजिस्ट्रेट को पहली नजर में शिकायत देखने के बाद संज्ञ‌ेय अपराध दिखता है, तब मैजिस्ट्रेट की ड्यूटी बनाती हैं कि वह सीआरपीसी की धारा- 156 (3) के तहत पुलिस छानबीन का आदेश पारित करे। मैजिस्ट्रेट को सेक्सुअल ऑफेंस के केस में छानबीन का आदेश देना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर मामला सेक्सुअल ऑफेंस की शिकायत से संबंधित हो या इस तरह के ऑफेंस हों जहां विक्टिम ट्रॉमटाइज्ड हो तो मैजिस्ट्रेट को शिकायती पर दायित्व नहीं डालना चाहिए बल्कि उसे पुलिस छानबीन का आदेश पारित करना चाहिए। शिकायती के लिए यह संभव नहीं है कि वह सारे साक्ष्य जुटाए और पेश करे। दरअसल मौजूदा मामले में शिकायती महिला ने पुलिस के सामने संस्थान के वीसी के खिलाफ शिकायत कर कहा था कि उसे गलत तरीके से टच किया गया है। लेकिन जब उसकी शिकायत पर एक्शन नहीं हुआ, तब महिला ने एसपी के सामने शिकायत की फिर भी कोई एक्शन नहीं होने पर मैजिस्ट्रेट के सामने याचिका दायर की। तब फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट ने पुलिस से स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। मामला सुप्रीम कोर्ट में जब आया, तब सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार की और ग्वालियर के संबंधित मैजिस्ट्रेट को निर्देश दिया कि वह छानबीन का आदेश पारित करे। सुप्रीम कोर्ट ने ललित कुमार बनाम यूपी केस का हवाला देकर कहा कि पुलिस की ड्यूटी है कि संज्ञेय अपराध में वह केस दर्ज करे। अगर पुलिस को छानबीन के बाद लगता है कि केस नहीं बनता, तब वह सीआरपीसी की धारा-173 के तहत फाइनल रिपोर्ट दे सकता है। लेकिन पुलिस के लिए संज्ञेय अपराध के केस में यह ओपन नहीं है कि वह केस दर्ज करने से इनकार कर दे। कानून में साफ है कि पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि उसके सामने अगर संज्ञेय अपराध का मामला आता है, तब वह केस दर्ज करने से इनकार कर दे।

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