मंदी से ध्वस्त हुआ कारोबार

मंदी से ध्वस्त हुआ कारोबार

जिले की बाजारों मे भीड़ तो है पर ग्रांहक नदारत, ऑनलाईन बिजनेस ने बैठाया भट्ठा

बांधवभूमि, उमरिया
कोरोना के बाद से बाजारों पर छाया मंदी का कोहरा छंटने का नाम नहीं ले रहा है। महामारी को रूखसत हुए हलांकि करीब दो वर्ष से ज्यादा अरसा बीत चुका है, लेकिन आम आदमी की अर्थ व्यवस्था अभी भी पटरी पर नहीं आ पाई है। जिसका सीधा असर व्यापार पर दिखाई दे रहा है। हालत यह है कि बाजारों मे भीड़ तो दिख रही है, पर उनमे ग्रांहकों की संख्या नगण्य है। जिले के सभी शहरों और कस्बों की हालत लगभग एक जैसी है। किराना, कपड़ा, सब्जी सहित अन्य सामग्रियों के कुछ एक दुकानो को छोड़ कर बाकी जगहों पर सन्नाटा पसरा हुआ है। व्यापारियों का कहना है कि पहले भी दुकानदारी ऊपर-नीचे तो होती रहती थी, परंतु अब धंधे मे उठाव गुजरे जमाने की बात हो चली है। बांधवभूमि से चर्चा के दौरान कई कारोबारियों ने बताया कि व्यापार केवल वैवाहिक सीजन मे ही उठता है, वह भी कुछ दिनो के लिये। व्यापारी मानते हैं कि मंदी के अलावा ऑनलाईन कारोबार ने भी व्यापार का भ_ा बैठाने मे कोई कसर नहीं छोड़ी है।

कृषि क्षेत्र की बदहाली
कारोबार से जुड़े जानकार इसके पीछे कई परिस्थितियों को जिम्मेवार ठहराते हैं। उनके मुताबिक अभी भी जिले की अर्थ व्यवस्था कृषि पर ही आधारित है, लेकिन यह वर्षो से एक ही ढर्रे पर चल रही है। नकली खाद-बीज, मौसम की मार, बिजली की किल्लत, बढ़ती लागत और उपज का पर्याप्त मूल्य नहीं मिलने से खेती लाभ का धंधा बनना तो दूर, लागत निकलने का जरिया भी नहीं रही। सरकार और कृषि विभाग भले ही रकबा बढऩे के कितने ही दावे करे, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है। एक समय जिले मे राई, अलसी, तिल, रामतिल, चना, अरहर, मसूर, मक्का, उड़द आदि फसलों की भी बहुतायत मे पैदावार होती थी, पर अब खेती का मतलब सिर्फ गेहूं और धान रह गई है। यह खेती भी सिर्फ पेट भरने और पशुओं के भूंसे के लिये की जा रही है।

गरीब, मध्यम वर्ग बदहाल
किसी भी देश की अर्थव्यस्था मे सबसे बड़ा योगदान गरीब और मध्यम वर्ग का होता है, आज यही तबका सबसे ज्यादा बदहाल है। मंहगाई और बेरोजगारी के कारण आम आदमी की क्रयशक्ति कमजोर हुई है। वह अपने जीवन-यापन और बच्चों की पढ़ाई के साधन जुटाने के लिये जद्दोजहद कर रहा है। इधर सरकारों द्वारा बड़ी राशि लोक लुभावन नीतियों मे खर्च करने से विकास की योजनाओं मे निवेश कम हुआ है। एक समय शासकीय विभागों पर बजट खर्च करने का दबाव होता था, अब वे भी खाली हैं। ग्राम पंचायतों मे मनरेगा, बीआरजीएफ, पंच परमेश्वर जैसी याजनायें महीनो से बंद पड़ी हैं।

बूढ़ी कालरियां और निजीकरण
जिले के हजारों परिवारों को पाल रही कोयला खदाने बूढ़ी हो चली हैं। जो चल रही हैं, उनमे भी आउटसोर्सिंग हावी है। एक समय एसईसीएल की एक खदान मे हजार से ज्यादा लोग काम करते थे। उन्हे मिलने वाला करोड़ों रूपये वेतन हर महीने की 10 तारीख को बाजारों मे आता था। पुरानी हो चुकी कालरियों मे कामगारों की संख्या घट कर 200-300 रह गई है। इनका स्थान ठेकेदारों और उद्योगपतियों की मशीनो ने ले लिया है। पुरानी व्यवस्था मे जहां दो हजार कामगारों को मिलने वाले वेतन से 10 हजार परिवार पलते थे, पर अब पूरी कमाई एक, दो या दस लोगों के जेब मे जा रही है।

बैकों का घट रहा डिपोजिट
एसईसीएल की तरह ही अन्य विभागों मे भी अमले की संख्या लगतार घटती जा रही है। वर्षो से भर्तियां बंद हैं। कलेक्ट्रेट, रेलवे, विद्युत मण्डल, लोक निर्माण, लोक स्वास्थ्य सहित लगभग हर कार्यालय मे दर्जनो स्थाई कर्मचारियों का स्थान चंद संविदा कर्मियों ने ले लिया है। जिन्हे स्थाई बाबू, कर्मचारियों के मुकाबले आधा वेतन मिलता है। सारी कमाई रोजी-रोटी मे ही खर्च होने के कारण बचत योजनायें भी प्रभावित हुई हैं। बैंकिंग सेक्टर से जुड़े सूत्र बताते हैं कि पिछले कुछ सालों मे बैंकों के डिपोजिट मे काफी गिरावट आई है। विशेषज्ञों का दावा है कि यदि जल्दी ही सरकार की नीतियों मे अमूल-चूल परिवर्तन नहीं हुआ तो स्थितियां और भी खराब होती चली जायेंगी।

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