राज्य स्तर पर ही मिलेगा अल्पसंख्यक दर्जा

कथावाचक देवकीनंदन की याचिका पर SC का फैसला

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा केवल राज्य स्तर पर ही दिया जा सकता है। यह काम जिला स्तर पर नहीं होना चाहिए। कोर्ट ने यह बात सोमवार को कथावाचक देवकीनंदन महाराज की याचिका पर सुनवाई करते हुए कही। याचिका में देश के 9 राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की गई थी।देवकीनंदन महाराज ने दलील दी थी कि राज्यों में हिंदुओं की संख्या कम हो गई है, इसलिए उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। साथ ही हिंदुओं की गणना राज्य की बजाय जिला स्तर पर कराने की मांग की गई थी।
जिलेवार दर्जा देना कानून के विपरीत
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिका में अल्पसंख्यकों का दर्जा जिला स्तर पर तय करने की मांग की गई है, लेकिन अगर ऐसा होता है तो यह कानून के विपरीत होगा। कोर्ट ने कहा कि 11 जजों की बेंच पहले ही यह साफ कर चुकी है कि इस मामले को राज्य स्तर पर ही देखा जाना चाहिए।इस मामले की पिछली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कई जिलों में हिंदुओं की कम संख्या के मामले में ठोस सबूत पेश किए जाएं, इसके बाद ही हिंदुओं को अल्पसंख्यक दर्जा देने की मांग वाली याचिका पर विचार हो सकता है।
कथावाचक ने अपनी याचिका में क्या कहा था?
कथावाचक देवकीनंदन ने याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 की धारा- 2सी की वैधता को चुनौती दी है। याचिका में अल्पसंख्यक समुदाय को विशेष अधिकार देने और कई राज्यों-जिलों में हिंदुओं की कम आबादी के बावजूद उन्हें ऐसे अधिकारों से वंचित रखने को संविधान से उल्टा बताया गया है।याचिका में अल्पसंख्यक अधिनियम कानून को संविधान के अनुच्छेद 14,15,21,29 और 30 के विपरीत बताया गया है।
याचिका में कहा- लद्दाख में आबादी का सिर्फ 1% हिंदू
याचिका में कहा गया है कि लद्दाख में सिर्फ 1%, मिजोरम में 2.75%, लक्षद्वीप में 2.77%, कश्मीर में 4% हिंदू हैं। इसके अलावा नगालैंड में 8.74%, मेघालय में 11.52%, अरुणाचल प्रदेश में 29%, पंजाब में 38.49% और मणिपुर में 41.29% हिंदू हैं। इसके बावजूद सरकार ने उन्हें अल्पसंख्यक घोषित नहीं किया है।
9 राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक
देवकीनंदन ने याचिका में कई धर्मों के अनुयायियों की संख्या के आंकड़े पेश करते हुए इस पर चिंता जताई है। याचिका में कहा गया है कि 9 राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं, लेकिन वे फिर भी अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान नहीं खोल सकते, जबकि संविधान अल्पसंख्यकों को यह अधिकार देता है।

 

 

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